पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/११०

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इन्दिरा।

ऐसा नहीं है कि मैं कारबार की बात न जानती होऊं। पर मेरे किसी उपाय से भी कुछ न हुआ। तब मुझे रुलाई पर रुलाई आने लगी।

दुसरे दिन सबेरे स्नान आदि के अनन्तर जलपान कर के उन्होंने मुझे अपने पास बैठा कर कहा―

“आशा करता हूं कि जो जो बातें मैं पूछूगां, उन सभीं का सच्चा जवाब तुम दोगी।”

तब मेरे मन में रमण बाबू के साथ जिरह करने की बात याद आई। मैंने कहा―“हां, मैं जो कुछ कहूंगी सब सच ही कहूंगी; किन्तु अभी आप की सारी बातों का जवाब न दंगो।”

उन्होने यूछा―“मैं ने सुना है कि तुम्हारे पति जीते हैं। तो क्या उनका नाम गाम बतलाओगी?”

मैं―अभी नहीं, थोड़े दिन और बीतने पर।

वे―अच्छा, यह कह सकतो हो कि तुम्हारे दूलह इस समय कहां हैं?

मैं―इसी कलकत्ते शहर में।

वे―(ज़रा चिहंक कर) ऐं! तुम कलकत्ते में और तुम्हारे पति भी कलकत्ते ही में? तो फिर तुम उन के पास क्यों नहीं रहती?

मैं―उन के साथ मेरी जान पहिचान नहीं है।

पाठक! देखिये, मैं जो कुछ कह रही हूं, सो सब सच ही कहती हूं। मेरे प्राणनाथ यह उत्तर सुन चकपका कर बोले―