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अठारहवां परिच्छेद

“स्त्री पुरुष में परिचय नहीं है! यह तो बड़े अचंभे की बात है!”

मैं―सभी की जान पहिचान क्या रहती है? क्या आप की है?

इस पर ज़रा फीके पड़ कर उन्होंने कहा―“उस में भी कुछ दैवी दुर्घटना हो गई है।”

मैं―तो, दैवी दुर्घटना सभी जगह है।

वे―अच्छा, यह तुम कह सकती हो कि भविष्यद् में वे तुझ पर किसी तरह का दावा तो न करेंगे?

मैं―यह बात मेरे हाथ है। यदि मैं उन के आगे अपना परिचय दू, तब न जाने क्या हो, यह कौन जाने।

वे―तो तुम से सब बात खोलकर कहूं; तुम वड़ी चतुर हो, यह मैं ने जान लिया, सो तुम इस बारे में मुझे क्या सलाह देती?

मैं―कहिये, क्या कहते हैं?

वे―मुझे घर जाना पड़ेगा।

मैं―यह मैं समझी।

वे―घर जा कर जल्द लौटना कठिन है।

मैं―यह भी सुन चुकी हूं।

वे―तुम्हें छोड़ कर भी नहीं जा सकता। क्योंकि तुम्हें देखें बिना मैं मर जाऊंगा।

मेरा प्राण कंठ में आ रहा था, तौ भी मैं खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली―