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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/११२

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इन्दिरा।

“हायरे, फूटे करम! भात छीटने पर कौवे की क्या कमी है?”

वे―किन्तु कोयल की कलक कौवे से नहीं मिटती। इसलिये मैं तुम्हे लेही जाऊंगा।

मैं―तो, मुझे रक्खेंगे, कहां? और घरवालों से मेरा क्या परिचय देंगे?

वे―एक भारी जूआचोरी करूंगा। उसी को कल सारे दिन विचाग है, और तुम्हारे साथ बात तक न की।

मैं―तो, क्या यह कहेंगे कि यही इंदिया है! रामरामदत्त के घर से बोलाये हैं?

वे―यह क्या! अरे! तुम कौन हो?

मेरे प्राणप्यारे काठ हो दोनों आँखों की पलकें ऊपर तान कर मेरे मुंह की ओर निहारने लगे। तब मैंने पूछा, “क्यों, क्या हुआ?”

वे―तुम ने इंदिर का काम क्यों कर जाना? और मेरे मन के गुप्त मभिवायही की क्यो कर समझा? तुम मनुष्य हो या कोई मायाविनी?

मैं―इस बात का परिचय मैं पीछे दूंगी। पर अभी आप के साथ उल्टी जिन्ह करूंगी। आर जवाब दें।

वे―(डर कर) कहो।

मैं―उस दिन आपने मुझ से कहा था कि “अपनी स्त्री के मिलने पर भी अब उसे ग्रहण नहीं करेंगे, क्योंकि उसे डाकू लूट