पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१३५

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इक्कीसवां परिच्छेद ।

इक्कोस परिसर ज कल एक तेली के स यारी शीवी की बदनामी फैल रही कोल डबाय के पते जिन्दा तेल आग कहो त ट और की परी देनेगी। नबने उन्हें रोकने के लिये यह जीनी को दिखा कर १६ का क्यो होहो हो ? बारे कृ पा कूद गये हैं। इसलिये आलो हम तु 'जिन' पर हो कर ज़रा रा!" __ अमुलीनी "महिपो"द के कार्य समाने में देसी इंडिता धों "सिन" शब्द के अर्थ मा श्री उन्हें देखा ही शान था। इस ये उन्होंने सोचा कि "पद ही शायद किसी पुलिन विहारी को लगा कर मेरे बलश हिल सतीत्व में कलंक रहित उनके रुप के कारण ) किसी तरह का पात्रा ने महिला से दंग कोलनी है । यह ग्लोब कक्ष कर बोली- " के भीतर पुहिन कोन है जो इस पर मुझे भी कार बढ़ाने की इच्छा हुई, सोई में बोली "जिस के मन घर शोर पोर होकर यमुना रात दिन तरं भरारती हैं, शुद्ध को वृन्दावन में 'पुलिय' कहते हैं।" अरे ! अब भार 'तरंगा ने मेरे सर्वनाश हो कर डाला। यमुना ने समझा तो क र भी नहीं और गुरुले ले समक "चल, दूर हो; मैं तेरे नरंग फरंग लो नहीं जानली, न तेरे लिन को पहिचानती और द सेरे केंद्रावल को ही सीहती हूँ, जान पड़ता कि इतने बरस के नाम डाकू के यहां से सीख