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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१३६

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इन्दिरा।

उसी मजलिस में ‘रंगमयी’ नाम की एक मेरे बराबरवाली सखी थी। उस ने कहा―

“इतनी चिढ़ती क्यों हो यमुना जीजी! नदी के किधर (चल्क को पुलिन कहते हैं। तो क्या तुम्हारे भी दोनों ओर दिया है?”

चञ्चला नाम की यमुना की एक भौजाई घूघंट काढ़े यमुना के पीछे बैठी थी, उसने घूघंट के भीतर ही से ते मोठे स्वर से कहा―

“दिवार रहता, तौ भी जान बचती! ज़रा खुलासे तौर से कुल देख सुन सक्ती, पर अब तो केवल को कलिंदी कलकल कर रही है।”

कामिनी ने कहा―“अरे! तुम लोग मेरी यमुना जीजी को यों बीच दियर में क्यों छोड़ रही हो?”

चंचला बोली―“इनकी जलाप छूटे! अब मैं ननदजी को नदी के चक्क (दियर)मे क्यो छोड़ूगी? इन के भाई का पैर थाम्ह कर कहूंगी कि जिस में इन्हें चौड़े असान में फेंकें।”

रंगमयी ने कहा―“क्यों बहू! इन दोनो में क्या फरक़ है?”

चंचला ने कहा―“मसान में स्यार कुत्तों का भता होगा―और चक्क, चर, दियर) मे भी भेंस चरती हैं सो उन सभी की क्या भलाई होगी। भैंस शब्द कहने के समय बहू मे ज़रा घूंघट खोल कर ननद की ओर मुस्कुरा कर कटाक्ष किया था)।

यमुना बोलीं―“सो हज़ार बार वही अच्छी नहीं लगती! जिसे भैंस अच्छी लगे, वही हज़ार बार भैंस मैंस किया करे।”