सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०
इन्दिरा।

अनतर वह दुष्ट और जो कुछ बोला, उसे लिख नहीं सकती। और अब वे बातें मन में भी नहीं जा सकती। वही बुड्ढा डांकू उस दल का सर्दार था, उसने उस युवा को लाठी दिखाकर कहा कि,―“इसी लाठी से तेरा सिर तोड़ कर यहां रख जाऊंगा, ये सब पाप क्या हम लोगों से सहे जायंगे?” फिर वे लोग चले गये।

________

तीसरा परिच्छेद।

ससुरार जाने का सुख!

क्या ऐसा भी कभी होता है? इतनी विषद और इतना दुःख भी कभी को किसी का हुआ है? कहां तो पहिले पहिल स्वामी के दर्शनों को जाती थी―सारे अंग में रत्नलंकार पहिर, कितने चाव से बाली की संचार, जूढ़ा बांध, साध से लगाये हुए पान चाम अछूत अधरोष्ठो को लाल लाल कर, सुगंध से इस पवित्र और पढ़ी जवानो से फूलो हुई देह को सुगान्धत कर के, इस उन्नीसवें वर्ष से पहिले पहिल प्राणपति से मिलने जाती थी―क्या कह कर इस अमूल्यरत्न को उन के चरणारविंद में उपहार दूंगी; वही सोचती २ जाती थी―पर हाय! एकाएक उस पर वह कैसा वजाघात हुआ! डांकू सारे गहने छीन ले गये,―ले जाये; उन्होंने जीर्ण मलिन और दुर्गन्धवाला वस्त्र मुझे पहराया,―पहरावें; वे मुझे शेर भालू के मुख में डाक गये―डा़क लायं; भूख प्यास के मारे प्राण जाता है,―जाय; मैं जीना नहीं चाहती; अभी प्रार जाय; सोई अच्छा―किन्तु यदि प्राण न निकले यदि मैं अब