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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१५

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तीसरा परिच्छेद।

जाऊ तो फिर जाऊँगी कहां? फिर तो उन का दर्शन न हुआ-कदाचित् मा बाप को भी अब न देख सकेंगी। हाय! रोने से भी रुलाई नहीं चुकती।

यही समझ कर निश्चय किया था कि अब न रोऊँगी। आँखों के आंसू किसी तरह नहीं थम्हते थे, तौ भी उन के रोक ने की चेष्टा करती थी―इतने ही में कुछ दूर पर न जाने कैसी एक भयानक गर्जना हुई, मैं ने समझा कि बाघ होगा। यह समझ कर मन में कुछ प्रसन्नता हुई, क्योकि यदि बाघ खा ले तो मेरी सारी जलन दूर हो। बाघ मेरे हाड़ गोड़ अलग करके लोहू चूस कर मुझे खायगा―सोचा कि यह भी मैं सहलूँगी; क्योंकि केवल शारीरिक कष्ट के अतिरिक्त और क्या होगा! बस मरने पाऊंगी, यही मेरे लिये परम सुख होगा, इसलिये रोना छोड, कुछ प्रसन्न हो स्थिर हो बैठो और बाघ की बाट जोहने लगी। अब जब पत्ते की खड़खड़ाहट सुख पड़ती तब तब मैं यही समझती थी कि यह सब दुःखों को दूर करने और प्राणों को शीतल करने वाला बाघ आता है। पर बहुत रात हुई, तौभी बाघ न आया। अब मैं हताश होगई। फिर मैंने सोचा कि जहां पर घना जङ्गल है,वहां पर सांप रहते होंगे। यह सोच सांप के ऊपर लात रखने को आशा से मैं उस जंगल के भीतर घुसी और उसके भीतर इधर उधर बहुत घूमी किन्तु हाय! मनुष्य को देख कर सभी भाग जाते हैं। वन में मैंने 'कितने ही ‘सर सर’ ‘पट पट’ शब्द सुने किन्तु सांप के ऊपर तो पैर न पड़ा। मेरे पैरो में कितने