सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७४
इन्दिरा।

सुभाषिणी―कब?

मैं―रात को, सब के सो जाने पर।

सुभाषिणी―अभिसारिका बनोगी?

मैं―बिना इसके और दूसरी गति कौन सी? और फिर इस में बुराई क्या है? पति ही तो हैं।

सुमषिणी―नहीं, दोष कुछ भी नहीं है, किन्तु ऐसा करना है तो उन्हें रात को अटकाना पड़ेगा। उनका डेरा पास ही है इसलिये ऐसा क्यों कर होगा? अच्छा देखूं र० बाबू के संग जरा सलह कर लूं।

यों कह उसने रमणभाबू को बुलवाया। और उन के साथ ओ कुछ बाते हुई सो सब उस ने आकर मुझ से सुनाईं और कहा―र० बाबू जो कुछ कर सकते हैं, वह यही है कि, वे इस समय मुकदमे के कागज़ात न देखेंगे और कोई बहाना कर के उन्हें अटकावेंगे। काग़ज़ देखने के लिये संध्या पीछे समय नियत उरेंगे। और संध्या होने पर तुम्हारे पति के आने पर काग़ज़ देखेंगे। काग़ज़ देखते देखते बहुत रात बिता देंगे और रात हो जाने से उन से भोजन कर लेने के लिये हट करेंगे। फिर इस के बाद तुम्हारी विद्या में जो कुछ शक्ति हो, सो करेगा। किन्तु रात को रहने के लिये हम लोग किस छल से उन से अनुरोध करें?”

मैंने कहा―यह अनुरोध तुम लोगों को न करना पड़ेगा, वह मैं खुद करूंगी। क्योंकि वे जिसमें मेरा अनुरोध मानें, वह उपाय मैं कर चुकी हूं। दो एक नैनबान चला कर उन्हें मैंने