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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/९५

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पन्द्रहवा परिच्छेद।

दिया? अच्छा अब मैं चली। बस आप के साथ मेरी वही अन्तिम भेंट है।” यों कह कर जिस तरह नैनबान मारना होता है, उसी भांति कटाक्ष करती हुई अपने घुंघराले चिकने, सुबासित बालों के लच्छे की कोर मानों असावधानी से उन के गाल में छुलाकर संध्या की पवन से बासन्ती लता की भांति तनिक झूमती हुई मैं बठ खड़ी हुई।

मैं सचमुच उठ खड़ी हुई, यह देख कर वे सन्न हो गये और झपट कर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा। चमेली की कली के कंगन के ऊपर उन का हाथ पड़ा, सो वे मेरे हाथ को धर कर मानो अचरज से मेरे हाथ की ओर निहारने लगे। मैंने कहा―“क्या निहार रहे है?” उन्होंने जवाब दिया―“यह क्या फूल है? पर यह फूल तो तुम्हारी नाजुक कलाई पर नहीं सोहता! क्योंकि फूल की अपेक्षा तुम अधिक सुन्दर हो। किन्तु चमेली के फूल की अपेक्षा भी स्त्री सुंदर होती है, यह आज पहिले पहिल देखा। ”मैंने कोप से उन के हाथ को झटक दिया, किन्तु हंस दिया और कहा―“आप अच्छे आदमी नहीं हैं। मुझे मत छूवें! और मुझे कुलटा भी न समझ।”

यह कह कर मैं दर्वाज़े की ओर बढ़ी। मेरे स्वामी-हाय! आज भी उस बात की याद आने से दुःख होता है―मेरे स्वामी ने हाथ जोड़ कर मुझे पुकारा―“मेरी बात मानी, मत जाओ। मैं तुम्हारे रूप को देख कर पागल हो गया हूं। मैंने ऐसा रूप कभी भी नहीं देखा! सो ज़रा ठहरो, थोड़ा और देखलूं, क्योकि फिर ऐसा रूप कहां देखूंगा?” यह सुन कर मैं फिर लौटी किन्तु बैठी