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न्याय से सम्बन्ध

चन्दा देते हैं। चूंकि सरकार क़ानून द्वारा सब की रक्षा करती है तथा सब को रक्षा की आवश्यकता होती है, इस कारण न्याय यही है कि सब से रक्षा करने का बराबर मूल्य लिया जाये। यह बात न्याय-संगत समझी जाती है---न्याय के विपरीत नहीं---कि सौदागर किसी चीज़ के दाम सब ख़रीदारों से---बिना इस बात के ख्य़ाल के कि उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है--समान ले। किन्तु जब इस ही सिद्धान्त को टैक्स लगाने पर लगाया जाता है तो इस सिद्धान्त के पोषक नहीं मिलते क्योंकि ऐसा करना मनुष्यता के भाव तथा समाजिक सुसाधकता के विपरीत है। किन्तु न्याय का जो उसूल बराबर टैक्स लगाने का समर्थन कर रहा है उतना ही ठीक है जितने वे उसूल जो बराबर टैक्स लगाने से विपक्ष में दिये जा सकते हैं। रईसों से अधिक टैक्स लेना न्याय- संगत प्रमाणित करने के लिये आदमी यह युक्ति देने के लिये विवश होते हैं कि सरकार गरीबों की अपेक्षा रईसों के लिये अधिक काम करती है। किन्तु वास्तव में यह बात ठीक नहीं हैं। अमीर लोग तो क़ानून तथा सरकार की अनुपस्थिति में भी ग़रीबों की अपेक्षा अपनी रक्षा अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं और संभवतः गरीबों को अपना गुलाम बना लेने में कृतकार्य हो सकते हैं। कुछ और आदमियों की सम्मति है कि जीवन की रक्षा के लिये तो सब को बराबर टैक्स देना चाहिये क्योंकि सब को अपनी जान बराबर प्यारी है किन्तु सम्पत्ति आदि की रक्षा के लिये न्यूनाधिक टैक्स देना चाहिये क्योंकि सब के पास समान धन सम्पत्ति नहीं है। दूसरे आदमी इस सिद्धान्त के उत्तर में कहते हैं कि सब मनुष्यों के लिये, जो कुछ भी जिस किसी के पास है, समान मूल्य का है। एक निर्धन मनुष्य के लिये एक रुपया उतना ही मूल्यवान् है जितनी एक अमीर को