पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६६
उपयोगितावाद का अर्थ

 कहते हैं जिन से सूचित होता है कि मानो अभी मनुष्य को पहले अनुभवों का कुछ पता ही नहीं है और जब किसी मनुष्य का जी हत्या या चोरी करने के लिये ललचाता है तो वह पहिले पहिल सोचना प्रारम्भ करता है कि क्या हत्या तथा चोरी सामाजिक सुख में बाधा डालने वाली हैं। यह बात तो शेखचिल्लियों की सी कल्पना मालूम पड़ती है कि यदि मनुष्य जाति उपयोगिता को प्राचारयुक्तता निर्धारित करने की कसौटी मान भी ले तो भी इस बात का कोई निश्चय नहीं हो सकेगा कि कौनसा काम उपयोगी है और इस कारण समाज युवकों को इस विषय पर निर्धारित विचारों की शिक्षा देने तथा कानून द्वारा नियमों का पालन कराने की चेष्ठा नहीं करेगी। मनुष्य जाति को विवेकहीन मान लेने की दशा में तो हम आसानी से प्रमाणित कर सकते हैं कि किसी भी प्राचारयुक्तता परखने की कसौटी से काम नहीं चलेगा। किन्तु मनुष्य आति को कुछ भी विवेकशील मानने की दशा में हमको यह बात माननी पड़ेगी कि मनुष्य जाति ने अब तक के अनुभव से जान लिया है कि कौन २ से कार्य का क्या २ परिणाम तथा प्रभाव होता गत अनभवों के आधार पर जो विश्वास चले आते हैं वे ही सर्व साधारण के लिये प्राचार शास्त्र के नियम हैं। तत्त्वज्ञानियों को भी, जब तक कि वे कोई अधिक अच्छे नियम उपस्थित न कर सकें, इन विश्वासों को आचार-शास्त्र के नियम मामना पड़ेगा। मैं इस बात को मानता हूँ या यों कहना चाहिये कि मेरा हार्दिक विश्वास है कि तत्वज्ञानी लोग बहुत से विषयों के संबन्ध में आसानी से अधिक अच्छे नियम उपस्थित कर सकते हैं। माधुनिक प्राचार-शास्त्र के नियम ईश्वर-प्रणीत नहीं हैं।