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पांचवां अध्याय।
न्याय से सम्बन्ध
प्राचीन काल से उपयोगिता या सुख को आचार शास्त्र की कसौटी मानने में एक बड़ी रुकावट यह रही है कि क्या ऐसा मानना न्याय-विरुद्ध या अनुचित तो नहीं है। उचित या अनुचित का ख्य़ाल इतने अधिक अंश में रहता है कि बहुत से तत्त्वज्ञानियों का यह विचार होगया है कि वस्तुओं में एक आन्तरिक ( Imherent ) गुण हैं जो इस बात को प्रगट करता है कि 'उचित' का प्रकृति में पृथक् अस्तित्व है तथा औचित्य सुसाधकता से भिन्न है।
अन्य नैतिक स्थायी भावनाओं के समान इस भावना में भी भावना की उत्पत्ति तथा व्यापकता में कोई आवश्यक संबंध नहीं है। केवल किसी भावना के प्रकृति-दत्त होने के कारण ही हमको प्रत्येक दशा में उस भावना का नेतृत्व मानना आवश्यक नहीं हो जाता। उचित का ख्य़ाल एक सहज क्रिया ( Instinct ) हो सकता है किन्तु फिर भी अन्य सहज क्रियाओं के समान