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पांचवां अध्याय

'उचित' की भावना को उच्चतर विवेक द्वारा समझने तथा वश में रखने की आवश्यकता हो सकती है। यदि हमारे अन्दर मानसिक सहज क्रियायें हैं जो हमको किसी विशेष रूप से निर्णय करने की प्रेरणा करती है तथा पशु-सहज क्रियायें ( Animal instincts ) हैं जो किसी कार्य को किसी विशेष प्रकार करने की प्रेरणा करती हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि अन्तिम सहज क्रियाओं की अपेक्षा पहिली सहज क्रियाओं को अपने काम में अधिक अविलुप्तधी अर्थात् भूल से रहित ( Infallible ) होना चाहिये। जिस प्रकार कभी २ पशु सहज क्रियायें ग़लत काम करने की प्रेरणा करती हैं उसी प्रकार मानसिक सहज क्रियायें भी कभी २ गलत निर्णय करने की प्रेरणा कर सकती हैं। यद्यपि यह विश्वास करना कि हमारे अन्दर न्याय या इन्साफ़ की प्राकृतिक भावनायें हैं तथा इन भावनाओं को अाचरण की अन्तिम कसौटी मानना दो भिन्न २ बातें हैं, किन्तु वास्तव में इन दोनों मतों में बहुत घनिष्ट सम्बन्ध है। मनुष्य जाति का यह पहिले ही से विश्वास रहा है कि कोई आत्म-गत भावना ( Subjective feeling )--जिसको हम किसी और तरह से नहीं समझा सकते-किसी अनात्म सम्बन्धी वास्तविकता ( Objective reality ) का ईश्वरादेश है। इस समय हमारा उद्देश्य इस बात के निर्णय करने का है कि क्या न्याय की भावना ऐसी भावना है जिसके लिये किसी विशेष ईश्वरादेश की आवश्यकता हो? क्या किसी कार्य का न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध होना कोई ऐसी चीज़ है जो उस कार्य में विशेष रूप से विद्यमान हो तथा उसके अन्य सारे गुणों से पृथक् हो अथवा न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध होना उस कार्य के कतिपय गुणों का संगठन है जो एक विशेष रूप धारण कर