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पांचवां अध्याय

इस कारण हमें उन भिन्न २ आचरण-पद्धतियों पर विचार करना चाहिये जिन को सब मनुष्य या अधिकतर मनुष्य न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध मानते हैं।

१. किसी की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, जायदाद या और कोई चीज़ जिस का वह क़ानूनन अधिकारी है छीन लेना अधिकतर न्याय-विरुद्ध समझा जाता है। यहां पर न्याय-संगत तथा न्याय-विरुद्ध शब्दों का बिल्कुल सीमा-वद्ध अर्थों में प्रयोग हुवा है। अर्थात् किसी मनुष्य के कानूनी अधिकारों का ध्यान रखना न्याय-संगत है तथा उस के क़ानूनी अधिकारों की अवहेलना करना न्याय-विरुद्ध है।

किन्तु इस निर्णय में भी न्याय तथा अन्याय के ख्य़ाल को दूसरे रूप में लेने के कारण कई अपवाद हो सकते हैं। उदाहरणतः वह मनुष्य जिस के अधिकार छीन लिये गये हैं उन अधिकारों को खो बैठा हो। इस उदाहरण की हम अभी आगे चल कर व्याख्या करेंगे। किन्तु साथ साथ:---

२. ऐसा भी हो सकता है कि वे क़ानूनी अधिकार जो छीन लिये गये हैं ऐसे अधिकार हों जिन का अधिकारी वह मनुष्य होना ही नहीं चाहिये था अर्थात् वह क़ानून जो उस को वे अधिकार देता है दूषित क़ानून हो। जब ऐसा हो या जब ऐसा समझा जाय-हमारे मतलब के लिये दोनों बाते एक हैं-तो इस बात पर मतभेद होगा कि इस प्रकार का क़ानून तोड़ना न्याय-संगत अर्थात् उचित है अथवा न्याय-विरुद्ध अर्थात् अनुचित। कुछ विद्वानों की राय है कि किसी नागरिक को कभी भी किसी क़ानून को भंग नहीं करना चाहिये चाहे वह कैसा ही दूषित क़ानून क्यों न हो। अधिक से अधिक