मिश्रानी कुछ देर तक स्तम्भित सी खड़ी रही; उसकी समझ में न आया कि क्या करे। विमला को इस रूप में उसने कभी देखा न था, किन्तु इसी समय विमला की दूसरी डांट से मिश्रानी की चेतना जाग्रत हो उटी । विमला ने अपना क्रोध फिर उसी पर उतारा, बोली- "जाती हो कि खड़ी ही रहोगी" ? बेचारी मिश्रानी को कुछ कहने का साहस न हुआ, डरते डरते थाली वहीं मेज पर धोरे से रख कर वह जाने लगी। इसी समय विमला ने फिर पुकारा-- "यह थाली उठाके लिए जायो मिश्रानी"। मिश्रानी ने चुपचाप थाली उठाई और चली गई । विमला की मां से उसने जो कुछ देखा था कह दिया; साथ ही विमला के कहे हुए वाक्य भी दुहरा दिए। विमला की मां यह सब सुनकर घबरा उठीं । पुरानी कथा के अनुसार बेटी के देहली के भीतर पैर रखना अनुचित है, इसका उन्हें ख्याल न रहा। उसी समय वह कार पर बैठकर विमला के पास आई । इस समय तक विमला रो-धो कर कुछ शान्त होकर बैठी थी। सोच रही थी कि नाहक ही मां के घर की चीजें वापस भेजी। मिश्रानी से अनावश्यक बातें कह के बुरा ही किया। वह आखिर क्या समझे, समझे भी तो क्या कर सकती है? रह मां से कहेगी और मां को दुख होगा। अगर बाबू को मालूम हुआ तो? अनन्तराम जी की वेदना के स्मरण मात्र न ही विमला फिर रो उठी। इसी समय उसकी मां ने
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