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संनिकट पहुँचकर वह अपनी भूल देख लेता है। निर्मूल धारणा का निर्माता अपने आपको अपराधी पाता है। उसकी पूर्व धारणा, जन-ध्रुति और उसी के अनुभव का यह विरोध योगेश की आखों में व्रजांगना की मूल्य को सहज ही द्विगुणित कर देता है। व्रजांगना की अचिंतित पवित्रता एवं अकल्पित सच्चरित्रता योगेश को और भी अधिक सुदृढ़ आकर्षण-सूत्र में बाँध लेती हैं। योगेश, अपनी जिस मन स्थित, कल्पित, आदर्श जीवन-सहचरी से तुलना कर, अपनी वास्तविक पत्नी से असंतुष्ट रहता है, व्रजांगना में उसी की पूर्ण प्रति- मूर्ति पाता है, यद्यपि स्वयँ योगेश को इस का ज्ञान नहीं होने पाता। उसकी अतृप्त आकांक्षाएँ अपनी पूर्ति के लिए बहुधा तड़प उठती हैं। यह पुरुष प्रकृति की प्रेरणा है। परन्तु व्रजांगना विवाहिता स्त्री है, इसलिए योगेश को उसके प्रति केवल श्रद्धा और भक्ति रखने का ही अधिकार है। चिर काल तक योगेश के मस्तिष्क में पक संघर्ष, एक भीषण द्वन्द्व छिडा रहता है। परन्तु अन्त में योगेश की दुर्बलता ही विजयी होती है। योगेश पर पूर्णतया अनुरक्त और सदय, किन्तु सतीत्व का मूल्य समझनेवाली व्रजांगना योगेश से एक शब्द भी नहीं कहती; साथ ही एक क्षण भी वह अपने कलुषित जीवन को धारण नहीं कर सकती। वह आत्म-हत्या कर लेती है। और अन्त में, हम योगेश के ही मुंह से, पश्चाताप के पवित्र आंसुओ से धुले हृदय की हृदय-वेधी कथा सुनते है। यहां हम सिनेटरयीट्स (W.B.Yeats) का एक वाक्य उद्धृत कर देना चाहते हैं।

"The food of the spiritual-miodid is sweet, an Indian scripture says, but passiouate minds love bitter food."