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पतन की चरम सीमा पर पहुंचे हुए मनुज का यह उत्थानोन्मुख चित्र हमारी क्षमता की ओर संकेत करता है। अच्छा होता, यदि इस कहानी का अन्त कुछ ही पहले हो जाता।

चढा दिमाग में वर्तमान राजनीतिक तथा साहित्यिक हीनावस्था का मधुर संयोग देखने को मिलता है । यह पूरी कहानी स्थिति-विडम्बना का अच्छा उदाहरण है।

वेश्या की लड़की में एक सामाजिक समस्या उपस्थित की गई है। समाज से पृथक् दो व्यक्ति स्वतः पर्याप्त नहीं हो सकते । उसकी उपेक्षा कर वे काल-यापन भी नहीं कर सकते । टाल्सटाय (l'osltoi) के अन्ना (Anna Karenina) में अन्ना और रंस्की को देखिए । समाज के विश्वासों, धारणयों और निर्णयों का उसके प्रत्येक व्यक्ति पर कुछ-न-कुछ प्रभाव पड़ता ही है । प्रमोद, विरोधी समाज के चक्र भाव की परवा न कर, एक वेश्या की लड़की से विवाह तो कर लेता है, परन्तु लोकासंमत एवं जन-व्यवहार-विरुद्ध आचरण करने के परिणाम पाश से यह बल-पूर्वक मुक्त नहीं हो सकता । अनालोचित, निराधार जन प्रवाद के प्रबल वेग में, अपने आपको सम्हाल न सकने के कारण, यह वह जाता है। बेश्या की लड़की कुल-वधू नहीं, कुल -कलंक ही बन सकती है-सुन-सुनकर शांति की सुखद, स्निग्ध छन-छाया में पनपता, प्रमोद को स्तिमित चित्त क्रांति के उत्कोप और कोलाहल से विकल- विलुत हो जाता है। क्लंकित कुत में जन्म लेने का प्रायश्चित्त अनिवार्य है। सती-साधी और पति-परायणा छाया को आत्म-हत्या करनी पड़ती है।

निस्तन्ध एकान्त में, प्रिय कर्ण-कुहरों में अपनी अस्थिर आत्मा का अनावपूवं, मृदुल हलचल को धीमे-