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'हमारी सत्प्रवृत्तियाँ भी धीमे-धीमे उक्सायी जाती हैं। यह निसन्देह सूक्ष्म कला है। उदाहरण के लिए आप अंगूठी की खोज, सोने की कठी या अभियुक्ता को ही लीजिए। प्रत्येक में सत्य का नग्न बिन उपस्थित है। उसमें सात्विक जीवन और आदर्श चरित्र की सृष्टि नहीं की गई; परन्तु फिर भी वह नैतिक भावना से प्रेरित है और हमारी उच्च भावनाओं को ही जागृत करती है। चरित्र-भ्रष्ट होकर भी योगेश और बिंदो हमें सदाचार की जो शिक्षा देते हैं, वह एक सर्वशास्त्रपारंगत, धर्म-धुरीण पुरोहित जी की सामर्थ्य के बाहर है। अवसर तथा स्थिति को गुरूता और गहराई को देखकर उसके सम्बन्ध में विकल्प-वितर्क करने का हमारा साहस ही नहीं होता। घटनाओं की वास्तविकता हमें उसकी सत्यता पर और भी सन्देह नहीं होने देती। न तो उनके भाव ही और न उनके व्यञ्जक व्यापार, चेष्टाएँ तथा शब्द ही हमें कृत्रिम-से लगने पाते हैं। सहानुभूति से विधेयीकृत और प्रवण हम एक शब्द, एक इंगित द्वारा भी उन पात्रों के प्रति अविश्वास या अश्रद्धा नहीं व्यक्त करते। पश्चाताप से संतप्त अन्तस्तल को शीतल करने वाले वाक्य-स्रोत का प्रत्येक शब्दाधु हमारे हृदय को करणार्द्र बना देता है। पतन और प्रायश्चित्त की कथा सुनते-सुनते जब उनके मुख पर हम मानसिक अशान्ति, आत्म-ग्लानि और अन्तर्व्यवस्था का ताणडव देखते हैं, तब हमारी आत्मा विवेक- हीनता और विकर्म फी भयंकरता से काँप उठती है, और हम स्मशान की विपणण गभीरता के साथ जीवन की विषमता, मनुष्य की दुर्वलता तथा परिस्थितियों को प्रतारणा पर विचार करते हुए,अधिक सतर्क और प्रबुद्ध होकर अपनी जीवन-यात्रा में आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार कदाचार को कालिमा में