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पृष्ठ:उपहार.djvu/३९

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समासान्त, संस्कृत-परिमार्जित भाषा की शक्ति के परे है। न तो वह भाषा बोलती हुई ही रहती है और उसमें लोग ही उतना मिलता है । वह तो कहानी की निर्जीवता और कृत्रिमता बढ़ाने में ही सहायक होती है। फिर पात्र, स्थिति, अवसर और कार्य के अनुरूप ही लेखिका भाषा का प्रयोग करती जाती है। भाषा और भाव का यह स्वर- संग अभिव्यक्ति को तीय तथा प्रभावोत्पादक बनाने में सहज ही समर्थ होता है। कई स्थलों पर भावों में काव्योचित उत्कर्ष होने के कारण भाग में भी रागात्मक तीव्रता देखने को मिलती है।

कहीं-कहीं छोटे-छोटे वाक्यो का विन्यास पात्र के व्यापार-वेग को अत्यन्त सफलतापूर्वक व्यजित करता है। भाषा के उदाहरण देखिए:-

"..."वह पुन को मनाने 'चले। रास्ते में सोचा, कहीं हाथ पैर छुटने आई तो लाख वेश्या की लड़की है, पर अब तो वह मेरी पुत्र-वधू है । क्या मैं खाली हाथ ही पैर छुआ लगा ? सराफे की ओर घूम गए। वहां से एक गोड़ी जड़ाऊ कंगन खरीदे, और जेब में रखकर दस कदम भी न चल पाए होंगे कि सामने से प्रमोद आते दिखे । चन्द्रभूषण के पैर रुक गए, प्रमोद भी ठिठके । मुस्कराकर इन्होंने पिता जी के पैर छु लिए। चन्द्रभूषण को आंखों से गांगा-जमुना बह निकली । प्रमोद के भी आंसू न रूक सके। दोनों कुछ देर तक इसी प्रकार का बहाते रहे; कोई बातचीत न हुई। अन्त में, गला साफ करते हुए चन्द्रभूषण ने कहा "घर चलो बेटा ! तुम्हारी अम्मा रात. दिन तुम्हारे लिए रोया करती है। प्रमोद ने कोई आपति न की, सुपचाप पिता के साथ घर चले गए।

[विश्या की लड़की]

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