पृष्ठ:उपहार.djvu/५४

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की बैचेनी से मै अत्यंत अस्थिर सोची । उठी, खिड़की खोलकर देखा कुन्दन अब भी कुदाल चला रहा है। जो न माना, दर- वाजा खाल कर बाहर निकली। पंखा खीचने वाली दासी ने रोका "बहू इतनी गरमी में भीतर से बाहर न जाओ जायगों" मेने उसे हाथ के इशारे से चुप रहने के लिये कहा और बगीचे में पहुंची। कुन्दन की कुदाल रुक गई। कुदाल को जमीन पर एक तरफ फैक कर उसने श्राश्चर्य से मेरी ओर देखा मेने कहा-"कुन्दन! तुम इतनी कड़ी तपस्या क्यों करते हो ? क्या तुम्हें इस प्रकार काम करते देख कर मुझे कष्ट नहीं होता? क्या तुम्हारा शरीर इस मेहनत को सह सकेगा! तुम कहाँ सुख से रहो ता मुझे भी शान्ति मिले । आख़िर इस प्रकार जीवन को तपाने से क्या लाभ होगा? तुम तो मुझ से अधिक समझदार हो कुन्दन !"

सारी करुणा सिमट कर कुन्दन की आंखों में उतर आई। वह कुछ बोला नहीं, बोलता भी कैसे ? उसी समय खांसता हुआ बुढ़ा माली अपनी कोठरी से बाहर आया ओर उसे कुदाल फिर उठा लेनी पड़ा।


मेरा स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जारहा था। लोगों को सन्देह था, शायद मुझे टी. बी. होरहा है। पति देव मुझे भुवाली भेजने को तैयारी कर रहे थे, किन्तु वे क्या जानते थे कि भुवाली से भी अधिक स्वास्थ्य लाभ में कुन्दन के समीप, केवल उसके सहवास से कर सकती हूं। मेरी दवा तो कुन्दन है। भुगाली और शिमला मुझे वह स्वास्थ्य नहीं प्रदान कर सकते जा मुझे केवल कुन्दन से स्वतंत्रता पूर्वक मिलने जुलने