पृष्ठ:उपहार.djvu/९४

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रायसाहय की किसी बात का उत्तर भी न दे पायो थी कि इसो समय उन्होंने अपना बडे बडे दातों वाला मुंह विन्दो के सुन्दर श्रोठों पर धर दिया। यिन्दो को जैसे विच्छू ने डक मार दिया हो, यह घयराई किन्तु कुछ यश न चला । इस प्रकार कुछ तो कठी की लालच में और कुछ रायसाहब की जबरदस्ती के कारण उस दिन दोपहर के सन्नाटे में थभागी बिन्दो अपने को खो बैठी। वेचारी को उस कठी की यहुत बड़ी कीमत देनी पडी। परन्तु उसके बाद फिर बह रायसाहब के घर दवा लेने कभीम गई।

उसके कुछ ही दिन बाद विन्दो ससुराल चली गई और उस कंठी को भी यह सबसे छिपाकर अपने साथ ले गई। ससुराल में लोगों के पूछने पर उसने यही बतलाया कि यह कटी उसकी मा ने उसे दी है।

किन्तु विन्दो ने उसे कमी पहिनी नहीं। पति के आग्रह करने पर जब कभी यह उले, घंटे बाघ घंटे के लिए पहिनती थो तो ऐसा मालूम होता है था जैसे काला विषधर उसके गले से लिपटा हो । कंठी को देखते ही प्रसन्न होने के बदले वह सदा उदास हो जाती थी।

विन्दो के पति और जेठों में अनबन हो गई। भाई- भाई अलग हो गये। दूसरे भाई तो पेती करके खुशी खुशी पाराम से रहने लगे, किन्तु जवाहर से रोती का काम नहीं होता था। जिसका परिणाम यह हुआ कि सय लोग तो चार पैसे कमाकर गहने-कपडे की भी फिकर करने लगे पर इधर जवाहर के घर फाफे होने लगे। अभिमानी स्वभाव के कारण जवाहर अपनी विपत्तिमाइयों पर प्रकट न होने देता।