पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११२

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ऊम्मिला (७४) झुकी हुई है वधू ऊम्मिला इक आलिखित चित्र के ऊपर, कर सरोज मे लिए तूलिका , है गुनगुना रही मीठे स्वर , कुछ पूरा, कुछ रहा अधूरा, रखा सामने एक चित्र-पट, मुख-अरविन्द समझ मंडारने लगी एक लोलुप भ्रमरी-लट । (७५) मानो अर्ध सृष्टि रचना कर आदि-कल्पना बैठ रही हो, कुछ-कुछ श्रमित और कुछ विस्मित मन ने मानो बॉह गही हो, झलक रही है कुशल तूलिका में अनेक रगो की झॉई, मानो पॅचरगी साडी की पडी लोचनो मे परछाई । (७६) "भाभी, क्या नव मृगया-प्रेमी की छवि चित्रार्पित यह की है ?" यो बोले शत्रुघ्न कि मानो जिज्ञासा-कलिका महकी है , 'हो लल्ला, पर रहो देखते चुपके-चुपके मेरी लीला," यो धीरे से प्रत्युत्तर में बोली श्री ऊम्मिला सुशीला । (७७) "माँ" बोले रिपुसूदन अपनी जननी को सम्बोधित कर के, मानो बाल-कीर बोला हो निज वाणी संशोधित कर के; "मों, भाभी ने मृगया-प्रेमी अश्व रहित है, अहो, बनाया, क्या मिथिला की चित्रकला ने अप्राकृतिकता को अपनाया (७८) बडा शिकारी यह भाभी का, पादत्राण-विहीन खडा है, -रहित, तूणीर-रिक्त, है, धनुष भग्न, फिर भी अकडा है, कैसी चित्रकला है, मैने इसका कुछ भी भेद न जाना, भाभी रानी, बतलाओ यह आखेटक का कैसा बाना ? अश्व- ?