पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१५४

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ऊम्मिला प्रेम के शुद्ध रूप मे कहो, कहाँ है पार्थिवता की चाह 7 उस अवस्था मे तो, हे देवि, नही है कटु वियोग का दाह , वहा है चिरकालीन मिलाप, मिला पट से ज्यो अचल छोर नही है वहा दरस का मोह, हिये मे बस जाता चित-चोर, तुरीयावस्था म यह भेद-भाव प्रेमी-प्रिय का है कहा प्रेम, प्रेमी, प्रियतम सब लोप एक मे एक हो रहे वहा । ? वहाँ तक कैसे पहुंचा जाय ? साधना कैसे साधी जाय हृदय की सरिता की यह धार बाँध मे कैसे बाँधी जाय ? इसी आदर्श-प्राप्ति के लिए- ऊम्मिले, मुझ मे तुम पा मिली प्रेम की मृदु पूजा के हेतु, कली-सी तुम इस हिय मे खिली, तुम्हारे आलिगन से सिहर,- आत्मा मेरी कॅपती रहे, तुम्हारे दरस-अमिय से मत्त हुई मम ऑखे झपती रहे । १४०