पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१५५

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द्वितीय सर्ग (५६) जठर-पोषण से प्रेरित हुई, निकल आई जैसे कृषि-कला, स-इन्द्रिय भावो से त्यो, प्रिये, निरिन्द्रिय प्रेम-विपट यह फला, मिलूँ मैं तुम में । मुझ मे पान, घुलो तुम, ज्यो कि सिसा की कनी, पल्लवित हो मम पादप-प्राण, खिलो उस मे तुम कलिका बनी, स्नेह का अलि मॅडराने लगे, चतुर्दिक मे गूंजे गुजार, धार-सी अन्तरिक्ष मे बहे, स्वरो का बँध जाए इक-तार। (६०) प्यार,--जीवन का यह विस्तार, बने ससृति का गायन-भार, तरगित करे हृदय-कासार, सत्य-शिव-सुन्दर की मनुहार, तुम्हारे मेरे भेद, स्वेद की कणिया बन-बन बहे, न बहे कामलिप्सा का स्रोत, दरस-आतुरता फिर भी रहे, बाहु ये, कुच, यह वक्षस्थली, लोल लोचन, मुख यह गम्भीर, एक परिरम्भ-रज्जु में बंध-- छलक पाए तन्मयता-नीर का यह . that ca au