पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७

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प्रथम सर्ग प्रार्थना १ देवि, ऊम्मिले, तेरी अकथित गाथा गाता हूँ मैं , किवा तव चरिताम्बुधि-मज्जन के हित आना हूँ मै अति अगम्य बलवती लहर है, थाह न पाता हूँ मै हृदय-शिला पर तव चरणो को, देवि, बिठाता हूँ, मै । २ सती, मुझे वर दो कि भारती मेरी हो कल्याणी , मै लघु शिशु हूँ, बुद्धिहीन हूँ और निपट अज्ञानी वैयाकरणी मै न, असस्कृत है यह मेरी वाणी , किन्तु कृपा की भीख माँगता हूँ, हे लक्ष्मण रानी । ३ यह कर्कश रव रुके और मै सुनू वही झकार- वह स्वर-जिसको नित रोते है तव चरणालकार निपट बली तेरे प्रियतम के धन्वा की टकार, और, सती, तव पद नख हर ले मम मूढाहकार । कोटि-कोटि कटुता में जीवन कटता है दिन रात , जीवन, शुष्क, शूल-कीणित है, औ' छिलते है गात , उद्विग्ना प्रवृत्ति भटकाती मन को साय-प्रात , किस से कहे ? कौन सुनता है ? किस के जोडे हाथ ?