पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७०

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अम्मिला (८६) न ऑधी थी, न वहाँ तूफान, न वायु प्रचण्ड, न झझावात, नही था कोई वात्याचक्र, कलह के न थे घात-प्रतिघात, बना नभ-मण्डल नील निरभ्र, गहनता उस मे भर-भर गई, कही मानस दिक्शुल न रहा अशुभ मात्राएँ झर-झर गई , अकम्पित लखन-म्मिलाकाश, स्नेह-रवि-मण्डित, स्वच्छ, अनन्त, सौम्य किरणो से पूर्ण दिगन्त, चिरन्तन बसता जहाँ वसन्त । (६०) लखन की धनु-टकार प्रचड, ऊम्मिला की नूपुर भकार, बन गई अनहद नाद अनन्त, उमड आई निनाद की धार, भर गए कर्णाम्बुधि वे अतल, एक रव, एक नाद, छा गया, गूंज थी दिगदिगन्त मे व्याप्त, हृदय, उद्घोष-तोष पा गया जग गई अकथ सुरत-रत कथा, अतीत अनन्त-स्मृति जग गई, पग गई मधुरे रस मे ठग गई, मगन लगन लग गई। > व्यथा