पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१९५

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नृतीय सर्ग 'चागे लगा, नयनो की गहराई हुई और भी कुछ गहरी, उतराने लग गई वेदना, उन नयनो मे रह-रह, री, भिल-मिल झिल-मिल सकल जग लगा, तिरता-सा ससर लगा. . कम्पित-सी हुई पुतलियाँ, अस्थिर सब व्यापार धुआँ-धुप्रॉ-सा कुछ उठ पाया, कुछ मोती-से बिखर पडे, कुछ आ पहुँचे युग कपाल तक, कुछ नयनो के द्वार अडे ! २४ "श्री अम्मिल, सलोनी की, वह- नासा सुघड हुई अम्णा बूंद-बूंद मिस उन रन्ध्रो । से, रह-रह टपक चुई करुणा, श्वास-रज्जु, वन-गमन-मथानी, भाजन हृदय प्रतीत हम व्यथा-मथित अन्तर का, नासा- रन्ध्रो से, नव-नीत चम लखन सुभट निज निर्मल पट से, , बार-बार मुख पोछ रहे, ऊपर से सुस्थिर-से दिखते, अन्तर-तर की कौन कहे ? , १८१