पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१९६

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म्मिला कणां भूषण उलझे-से कुन्तल 1 २५ श्रवणो में प्रिय-कण्ठ-ध्वनि के सुनने की वाञ्छा उमडी, हीरक-कुण्डल, आभा, कर्णो-- मे, कव-जालो से झगडी, अवश मौन के अवलम्बन ने, उन श्रवणो की तृप्ति न की, केशो ने कर्णिका-किरण की, उनझ-उलझ विज्ञप्ति न की, निरादृत, घन श्रवण रहे प्यासे के प्यासे, प्रवा मौन अवलम्बन से २६ शब्द-दीनता, रुद्ध कण्ठध्वनि, हिचकी, सिसक निराशा की, कलकण्ठो मे ये भर आई, लिए पीर गत अाशा की कहाँ श्रवण की तृप्ति ? औ' कहाँ अभिव्यक्ति हिय-भावो की ? यहाँ मौन भाषा ने दे दी साक्षी गहरे घावो की, स्वर-विश्लेषण, तान-समन्वय, ध्वनि-माधुर्य विलुप्त हुए, गायन-नि स्वन, वादन-निक्वण, ककण-रुण, सब सुप्त हुए। “१८२