पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२०४

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ऊम्मिला वैर्य-रूप तुम सदा ऊम्मिले, जनक-नन्दिनी देवि, सुनो, तुम हो प्रतिष्ठिता प्रज्ञा, तुम- अनन वन्दिनी देवि, सुनो. आज उमड आई यह कैसी विषम चचलावृत्ति, अये ? कहाँ गया सन्तोष-भाव ? कहाँ गई परितृप्ति, अये? माता प्राया, पुण्यवती धृतिमती सुनयना- की तुम जायी हो, तुम विदेह-तनया हो, तुम तो उनकी गोद-खिलाई हो । ४२ यह वन-गमन, विजन-सेवन यह, वन-पर्यटन प्राज आज निमत्रण देने को यह जगल का समाज अवध-राज' का काज छुट रहा, हमने विपिन-राज पाया, राज मुकुट की जगह राम ने-- निरा-त्रिशूल ताज क्यो विह्वल होती हो, रानी? क्यो अकुलाती हो मन में ? मेरे हिय में बनी रहोगी देवि, सदा उस निर्जन मे । प्राया, पाया, १६०