पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२०९

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तृतीय सर्ग 7 7 । कट बादल सोच रहा हूँ, कहा मिलेगा, इन अधरो का अमिय वहा सोच रहा हूँ, मेरी पाकुल- प्यास बुझेगी वहीं कहा फिर सोचू हूँ कि तुम - निरतर बनी रहोगी मम मन में, सोचूँ हूँ कि पुकारूँगा मैं तुमको निशि मे, निर्जन मे, हृदय-दुलारी, यो ये चौदह- बरस बडे जायेगे अवधि-अन्त में ये वियोग के भी हट जायेगे । ५२ देवि, विपिन मे निपट निबिड तम, मानस-जभ रवि-किरण बिना, प्राणी, वॉ अज्ञान-शिला की, करते है नित प्रदक्षिणा, ज्ञान बिना विज्ञान बिना वे मन-मस्तिष्क असस्कृत है, उनकी प्राकृत गिरा, शुद्धता- लक्षण से निरलकृत आकुचित मानस-दिड मडल, शब्द-कोश छोटा वे क्या जाने तत्व सगुण के- गुण का, निर्गुण की धुन का उनका, ? १६५ -