पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२२२

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ऊम्मिला ७७ करो रच अन्तमुर्ख अपनी, ये अँखिया बडिया बडिया अन्तर तर मे तनिक निहारो- आदि प्रभात मयी घडिया, उस दिन परम दिव्य अक्षर की सृष्टि-प्रेरणा जागी थी, स्वय जगत्पति ने अगुण एकता त्यागी थी, उस क्षण शून्य भर गया सहसा अनेकता-ससृतियो से, निर्गुण, स्वय बँध गया अपनी इन गुणशीला कृतियो से । अपनी वह ७८ अशेष नया, कालातीत अकाल गर्भ से- प्रकटा काल अखिल शून्य से प्रकट हुआ यह अन्तरिक्ष मय देश नया, फिर जग आई सृजन-प्रेरणा नव प्रभात की वेला मे,- अगणित तत्व चमकने लागे प्रथम प्रात की बेला मे, चतुर कलाधर ने अणु-अणु का गुम्फन ब्रह्माण्ड रचा, तारक-मडल, नभ-गा मय, सकल विश्व का काण्ड रचा ।