पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२४२

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ऊम्मिला ११७ देवि, मधुर वीणा का निक्वण मम अन्तरतर मे भर दो हिय-मन्थन-शीला स्वर-पीडा सकल चराचर मे भर दो, छन्द-हीन, गतिहीन, बेसुरा, ताल रहित जीवन जग का- ज्ञान नही है स्वर का, लय का, छुटा ध्यान स-नि-ध-प-म-ग का, तुम स्वर-लय-यति-गति-रति-रम्ये, कम्पित कर दो स्वर-लहरी, आज बहा दो स्वर-रस-धारा कुछ गहरी, कुछ-कुछ ठहरी । ११८ आज आत्म-लय का अगेय गीत गाऊंगा मैं परम आनन्द कन्द अन्तहीन स्वर मे, उमॅग - उमॅग पूर्ण प्रेम भर लाऊँगा मैं प्राण - आरोहण - अवरोहण - लहर में, उठेगी स्वर-तरगिणी रसधार घहर-घहर भर जायगी अम्बर रस-स्त्रोत, ओत-प्रोत करेगा ब्रह्माण्ड सब तान पूँज जायगी अखण्ड चराचर मे, तुम मेरी मानिनी, दानिनी, रानी, करो मुझे कृतकृत्य जीवन के प्रथम विस्मारक नाद की अनन्त गान-लहरियाँ तरगित हुई, देवि, मम मानसर मे । उमड प्रहर मे, २२८