पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सर्ग स्त्रष्टि प्रेरणा के तीव्र, मन्थन-विषाद भरे झल-झल झलके है तारे नभ-सर मे, अखिल ब्रह्माण्ड का दुरूह चक्रव्यूह भेद कर गूंजती है गायन-ध्वनि प्रान्तर मे, सूर्य-चन्द्र-ग्रह-सौर - मण्डल - आकाश - गगा- मन-मणि सम गुंथे गान-प्राण-हर मे, घूम-घूम झूम-झूम नृत्य करता है विश्व, विश्व रूप, शक्ति-बीज ब्रह्म के अधर में, अवध नची है, दशरथ नृप नाच रहे, कैकेयी नाचती पडी ज्ञान के चक्कर मे, इस क्षण केवल श्रीराम शान्त, स्थिर बुद्धि, विचरण कर रहे है प्रासाद भर मे। १२० एकोऽह यद्यपि बहु रूप हो गया मै यह- ध्वनि उठती है इस सृष्टि के भँवर मे, विश्व-नियमो की क्षुद्र घटिका खनकती है नियति की कटि मे, चरण मे, सुकर मे, क्रान्ति - उत्क्रमण - सुविकास - नाश-पाश-बद्ध जूझता है जग लीलामय के समर मे, एक सूत्र, एक लय, एक तान, एक गान एक ध्यान, भेद कहाँ पर मे ? वन-वासी अवध-निवासी के ये भेदभाव दूर हुए, भेद नही जगल मे, घर में, द्वैत भाव मिट रहा, दूर हो रहा है भेद शीतल छाया में, रवि किरण प्रखर में। अपर में? २२६.