पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कम्मिला / एक महाकाल के अनेक क्षण खण्ड रूप भेद-भाव युत फैल रहे जग भर मे, दिन, रात, प्रहर, मुहूर्त, क्षण, घटिकादि, सब का निलय महाकाल के उदर मे, स्वय विकराल महाकाल दीन भाव धरे लीन हो जाता है श्री अकाल के अन्तर मे, उस क्षण तन्मयता सिन्धु लहराता आके भेद भाव मिट जाता क्षर मे, अक्षर मे, यही आत्म लय का अगेय गीत गाने दो, री,- परम आनन्द कन्द अनहद स्वर मे, उमॅग-उमॅग पूर्ण नेह भर ले आने दो- प्राण आरोहण-अवरोहण-लहर १२२ यो कह, उनका चुम्बन करते । करते लक्ष्मण मौन अथवा हृदय-निगूढ भाव सब कुछ मुखरित, कुछ गौण हुए, 11 एक बार दोनो ने दोनो को देखा आँखे पैठ गए अम्मिला-हृदय में अम्मिला-श्रीवर के, एक दूसरे पर बलि जाते, हृदय ग्रन्थियाँ खोले-से- कुछ क्षण तक तो यो ही दोनो, बैठ रहे अनबोले-से । भर के, नयन