पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२४५

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तृतीय सर्ग १२३ हुए स्फुरित कुछ ऊर्मिला-अधर फिर कुछ कण्ठ निरुद्ध हुआ, फिर, हठ करते हिय का आकुल अभिव्यजन हत-बुद्ध कुछ अटके, कुछ भटके, ठिठके, वचन लाज-लटकीले वे, अन्तरतर मे पैठ रहे अति- अरुण, करुण, चटकीले वे, थके शब्द, रस-गोपनीयता- से झगडा करते-करते, फिर मुखरित हो उठे छबीले वे कुछ-कुछ डरते-डरते, १२४ "मेरे प्राण, त्राण की तुम से, नही मॉगती मै भिक्षा, मुझे याद है, देव, तुम्हारी स्पर्श-तितिक्षा की शिक्षा, आदर लाड, प्यार, जीवन मे- इतना तुम ने मुझे दिया, चिर अनुरक्ति-सुधा-रस मै ने अजलि भर-भर अमित पिया, लखन-प्रिया बन अमर हुई हूँ श्री विदेह की कन्या मैं देव, तुम्हारे श्री चरणो मे- धन्या मै, 1 २३१