पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२४७

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तृतीय सर्ग १२७ तुम मम अर्चन, वन्दन, पूजन, ज्ञान, ध्यान के हो स्वामी, अनुगामिनी तुम्हारी मै, तुम मेरे कितने नेह-निगूढ तत्व आत्म-रमण-रीतियाँ कई, तुम ने मम हृद्गत की है, हे- अभय अग्रगामी, देव, सुरत-रीतियाँ तुम मेरे गुरुदेव पुरातन, सतत सनातन रूप' प्रभो, तुम हो मेरी प्राण-प्रतिष्ठा तुम मम मूर्ति अनूप, प्रभो । १२८ तम मेरी जीवन-कुरगिणी- प्रादर्श शिकारी हो, हे प्रिय, तुम मेरे जीवन के बडे चतुर धनुधारी हो, मेरी चपल अहता की यह- मृगी हुई कब की धायल, प्रिय, मै तो हो चुकी कभी की तव धन बाणो की कायल, समय नहीं है कि मैं दिखाऊँ नीके तीखे बाणो को, आज समय ही नही, बताऊँ- उन सब शर-सन्धानो को । २३३