पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२५९

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तृतीय सर्ग आर्य धर्म के करवट लेने की यह घटिका आई है, महाक्रान्ति के सूत्र आज यह अपने सँग-सँग लाई है, स्वार्थ-प्रेरणा का रौरव रव शान्त करो, निस्तब्ध करो, निज ज्वलन्त शख-ध्वनि से, प्रिय, सब के हृदय विदग्ध करो, महानाग का मन्त्र फेंक दो, मेरे विकिट क्रान्ति कारी, भस्म करो ये गलित रूढियाँ, मेरे निपट भ्रान्तिहारी । १५२ ऐकान्तिक कर्तव्य नहीं है पितुराज्ञा-पालन, प्राणेश,- यह भी क्या, मैं तुम्हे बताऊँ - हे मेरे विशुद्ध ज्ञाने है उस में भी काल-परिस्थिति- बन्धन, देश-अवस्था का, करना पडता है विचार-निज धर्म-स्वकर्म-व्यवस्था का, धर्म-बध से का पालन निर्बन्ध नही, छुट सकता है अश-कर्म से पूर्ण धर्म-सम्बन्ध ? गुरुजन-आज्ञा कही ? २४५