पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२६१

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तृतीय सर्ग बडा, आज अवध मे फैल रहा है निपट कुकर्म-विकर्म यहाँ धर्म की अोट लिए इस- जन-पद-बीच अधर्म खडा, छाया है दुष्कर्म भयानक, धर्म-भावना रोती बोलो, मेरे निपट धनुर्धर, तुम को आज चुनौती है,- अाँखे खोले, धोखा खाते, यह अधर्म स्वीकार करो,- या फिर कैकेयी-कुमनोरथ- गढ को क्षण मे क्षार करो। आज जगत को सूर्य वश की टेक तनिक दिखला तो दो, धर्म किसे कहते है, भोले- जग को यह सिखला तो दो, दिखला दो, दो हाथ, धर्म की धाक-साख बिठला तो दो, इस अधर्म के जमे हुए जो-, चरण, उन्हे फिसला तो दो, खिसका तो दो अचल शिला इस- भीषण, जड परिपाटी की, पगडण्डी निर्विघ्न करो, प्रिय, अगम धर्म की घाटी की । २४७