पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२६२

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ऊम्मिला १५७ आज धनुष की डोर सजाए, शर संघाने, सज्जित हो,- कूद पडो, ललकार भरे, तव- प्राण रण-नदी मज्जित हो, यहाँ स्वार्थ-परता दिखलाती है अपनी प्राकृति, स्वामिन्, आज करो विद्रोह भयानक प्रति, स्वामिन् , गुरु-जन, माता, पिता, सुहृज्जन, जो भी हो अधर्म धारी, उन से लोहा लेने मे मत भिभको, हे स्वकर्म कारी ।' इस अधर्म वे प्राण १५८ विद्रोही ही जग में करते है सुधर्म-निर्माण नया, शुष्क अस्थियो मे सचारित करते है नया, नव-धारा-वाही विद्रोही नूतन काल-प्रवर्तक महानाश-ताण्डव का तिमय विद्रोही, ही नर्तक है, उसकी गति मे नाश सृजन, ये उभय परस्पर है मिलते, धन्य होता है कोमल शत-दल के खिलते । जैसे शल २४८