पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२७४

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अम्मिला १८१ यो कह हुई ऊम्मिला नीरव प्रिय के कन्धे पे झुक के, मानो आत्म-निवेदन लेने लगा बलाएँ रुक-रुक के, सलज, डबडबाती अँखियाँ भर- आई, ऑसू छलक पडे, मानो कमल-दलो से आतुर वे सीकर कग ढलक पडे, आश्वासन से भरे लखन बचन, मौन से उलझ पडे, फिर सहसा अभिव्यक्ति-प्रेरणा के प्रसाद से मुलझ कढे । पुण्य पवित्र "प्रिये, जनक नन्दिनी जम्मिले, तुम हो नित अविकारमयी, तुम हो सग-दोष-रहिता, तुम- विचार मयी, यह सुन्दर ऐकान्तिक-आशिक धम समन्वय विश्लेषण, कर्म - अकर्म - विकर्म - वाद का, प्रिये, तुम्हारा सुविवेचन,- नित्य सत्यता मयी तुम्हारी शुद्ध भारती कल्याणी,- यह सब, मुझे, सर्व अशो मे- स्वीकृत है , मेरी रानी । २६०