पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२७६

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कम्मिला १८५ । पार्यो उत्तरपथ-आगत वैभव से वे परिचित है, किन्तु आर्य-विस्तार विन्ध्य की ओर बहुत ही परिमित है, रह-रह कर कैकेयी को यह दक्षिण पथ ललचाता बहुत दिनो से विन्ध्य-विजय का मपना सताता इसीलिए, रानी, उन ने यह ऐसी युक्ति मिलाई है, निज सपना सच्चा करने की घटिका वे ले आई है । यह कैकेयी आर्य राम त्रैलोक्य जयी है, जाने लक्ष्मण की कर्मठ निष्ठा को, सुन्दरि, वे पहिचाने है, केवल राम सपथ कर सकते है इस अपथ विपिन-मग को, बस हम ही कर सकते है यह गौरवदान आर्य-जग को, कैकेयी ने सोच समझ कर रचा खेल यह सारा जब,- सिवा खेलने के है बाकी रहा कौन सा चारा अब ? २६२