पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२८०

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ऋम्मिला रानी हो, इतना तो तुम खूब समझ लो कि तुम लखन की रानी हो, हृदय-अश्म की तुम तरला रति, मेरे मन की जगल में तव नाम-स्मरण से सतत मम मगल होगा, मेरे लिए अन्यथा वह तो- जगल ही जगल होगा, तुम कहती हो तुम चलोगी सग बन मे, किन्तु, देवि, मै राम नही, बस और कहूँ क्या इस क्षण में?" "मेरे प्राण, मोह माया के तुम मेरे सहारक हो, तुम हो श्री गुरुदेव, ऊम्मिला- शुद्ध विचारक हो," यो लक्ष्मण के चरणो मे झुक विमल ऊम्मिला बोल उठी, मानो मूक मौन रसना, वर- पाकर सहसा डोल उठी, "यह उपदेश स्नेह मय दे कर तुम ने मुझ को धन्य किया, तुम ने मेरी चलित बुद्धि को, अब एकस्थ अनन्य किया । २६६