पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३१४

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जम्मिला यज्ञ है--सर्वभूत-हित- रत हो कर जीवन देना, शुद्ध यज्ञ है-जग-हिताय सब अपना तन, मन, धन देना, शुद्ध यज्ञ है-जग की सेवा, तत्लीना, चिर मुक्ति मयी, शुद्ध यज्ञ है-पाहुति देना, देह - भावना - भुक्ति मयी, प्राण-यज्ञ तो प्राण-दान है निज आदर्शों की धुन मे, आत्म-यज्ञ है-लय हो जाना अगुण-सगुण-गुण-निर्गुण २६२ किरणो की अजस्र आहुतियाँ, अशुमाली, मेघ उठे, धाराएँ बरसी, सरसी, हरषी प्रति डाली, भू-नक्षत्र-सौरमण्डल पाहुतियाँ आकर्षण की, कब से झाँकी दिखा रहे शुद्ध यज्ञ के दर्शन की ! इसीलिए कहते है प्रभु ने- सकल विश्व सह-यज्ञ रचा, बन सह-यज्ञ स्वय जगती मे लीलामय सर्वज्ञ नचा । 1