पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३२०

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अम्मिला २७२ लिपटाने , बैठा हो कुछ अचल पकड़, दृगचल नत कर, शरमाए, कुछ हिचके से,- कुछ आतुर से, कुछ गभीर से, कुछ-कुछ मन मे झिझके से- आर्य राम बोले धीरे से वचन करुण-रस ज्यो सकुचित कृतज्ञ भाव वह , सुलझाने, एक-एक शब्दो मे उमडी आतुरताए कई-कई, धीर सुमित्रा मॉ की स्मृतियाँ मानो जागी नई-नई । २७३ "तुम से कहते सकुचाता हूँ- कुछ, हे तपस्विनी माता, तुम ने छुटपन से ही धृति-मति दी है, मनस्विनी माता, बैठ तुम्हारी गोदी कितना- यह दुलार रस पान किया, मॉ, तब आँगन मचल-अचल नित वत्सलता का दान लिया, रज-रजित मुख तुमने चूमा, दूध पिलाया ललक-ललक, हम सब को जोहता रहा हैं तव वात्सल्य सजग, अपलक । ३०६