पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३२८

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ऊम्मिला २८८ माँ के बिना असम्भव है जग, सूना है, तम-शोकित है, मॉ की नेह-दीप-बाती से सब जग-मग आलोकित है, मों के झीने अचल में है टॅकी हुई जीवन-स्मृतियाँ, मॉ की मीठी गोदी में है उलझी शैशव की कृतियाँ क्यो हो ,इतनी ऊँची तुम, माँ, भेद तनिक' यह खोलो तो, किस पुनीत माटी से तुम को गढा ईश ने, वोलो तो ? J बाहक, २८६ मॉ, मै हूँ तव सुख का तस्कर, बहू ऊम्मिला का दाहक, मानो मै बन कर आया हूँ व्यथा-वेदना का पर लक्ष्मण को अवध छोडना यह तो कार्य कठिनतम है लक्ष्मण हठी जनम के है, यह जानो हो, माता मम हे 1 वह लक्ष्मण का अतुल प्रेम, वह- कठिन नेम तुम जानो हो, लक्ष्मण के आदर्श भाव को, जननी, तुम पहचानो हो । ३१४