पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३४१

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तृतीय सर्ग बहू-बेटो सीते बेटी, तुम से मैं क्या कहूँ ? जानती हो मब कुछ, प्रकट करूँ मै क्या हिय अपना तुम से नहीं छिपा अब कुछ, ऐसे को भेज रही हूँ निर्जन में, फिर भी ये निर्मोही मेरे- प्राण रमे ह इस कदाचित अभी और भी कप्ट शेप हे जीवन में, कुछ अनर्थ ही होगा इस चाथे पन मे । तन मे. रहा और पति परायणा, पतित पावना, भक्ति भावना मृदु तुम हो, स्नेहमयी, वात्सल्यमयी, श्री- राम-कामना मृदु तुम हो, तुम नारी हो, तुम नारी की हृदय-व्यया से परिचित हो, तुम हो करुणामयी, बहू, तुम समवेदना अपरिमित हो, इस हिय मे है अनिवर्चन मय, जो कुछ वाडमय रहित, बहू, है विश्वास, उसे समझोगी तुम अति आदर सहित , बहू ३२७