पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३५९

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चतुर्थ सर्ग ३ जग-हृदय अकारण यो ही करता रहता हा, हा, हा, कुछ है जिसके पाने को, जग होता है नित स्वाहा , व्रण है गहरा, कसके है, धरने को मिला न फाहा, कुछ ज्ञान नहीं वह क्या है, व्रण का अजन मन चाहा कुछ है, है कही, कहाँ है क्या है? है कितना? कैसा? जिन ने पाया वे कहते हैं वह वम इतना, ऐसा । ? ? सूना ही अति रिक्त-रिक्त-सा हिय है, सूना सूना जीवन जीवन-पथ सूने जीवन के क्षण है अस्तित्व-विटप, करुणा नित सीच रहा है कोई, फूली जीवन-टहनी पर- कलिकाएँ जगती का यह कौतुक लख, जगती की ऑखे रोई जग गई हिये मे सहसा करुणा कुछ खोई-खोई घोई-धोई , १