पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थ सर्ग प्रकट जड जग का सारा वैभव चेतन किया है, चेतन को स्थिर अवलम्बन जड जग ने यहा दिया है, फिर भी न तोष पाया इन,- आदानो प्रति दानो से, सन्तुष्टि नही हो पाई आपस के सम्मानो से रह गई अतुष्ट पिपासा, है हूक उठ चली हिय की, यह हूक मिटेगी तब, जब, मूरत देखेगे पिय की 1 7 कलियाँ रोती टहनी पे, रोते प्रसून डाली पे, पत्तियाँ बिलखती है बेलो की प्रति जाली पे लतिकाएँ रो-रो गिरती विटपो के वक्ष स्थल पर, झर रहे प्रोस वन-उपवन मे छल-छल कर , करुणा-जल सिचा जग की क्यारी-क्यारी मे, है भरा व्यथा का पानी - इस जीवन की भारी में 1 के आसू हुआ है