पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७

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प्रथम सर्ग शिल्पी का, हॉ, .यह महल है चातुरी का निशान, आर्यावर्तीय सुचतुरता का अनोखा वितान , भोगो का सम्पुट यह बना नेह का नव्य हार, योगी की है यह गिरि-गुहा, ज्ञान का पुण्य द्वार । 'जीवन्मुक्त प्रखर नुप के योग की तीव्र धारा,- स्नेहाविष्टा यह बह रही यो • अनूठी अपारा,- ज्यो सूखे से तरुवर महाऽश्वत्थ की एक डाली- पत्राविष्टा नवल ऋतु म भमती हो निराली । ऐसी पुण्या मधु सुरभि मे, कल्पने, जायगी त, तेरी आशा-नवल-लतिका, हॉ, हरी पायगी तू, माला गूंथे मत सुमन की,-साज कैसे सजेगे ? पावेगी जो मृदु चरण तो फूल तेरे लजेगे । X X X प्यारे चरण मगल करण आ रही है कल्पना मेरी तुम्हारे शरण प्यारे चरण मगल करण