पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३९९

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चतुर्थ सर्ग मे, ८३ सभूत महाभूतो उद्भूत वनस्पतियो सचरित प्राण लहरी जीवनोत्क्रमण-गतियो है छिपी आतुरता, वेदना एक गति चलिता, सब मे है झलक दिखाती अरुणा करुणा उच्छलिता, ना जाने, किस क्षण, कैसे, जग गई ज्योति प्रज्वलिता? है बहा रही ऑसू यह, विगलिता वेदना ललिता । ८४ अधियारे-उजियाले मे, अणु-अणु मे, रज-कण-कण मे,- इन सब पार्थिव तत्वो मे,- पल-निमिषो मे, क्षण-क्षण मे, अग्नि मे, वायु-कम्पन मे,- जल-वर्षण, नभ-घर्षण मन-हरण किरण-नर्तन आकर्षण-अपकर्षण मे- निशि-दिन मे, सॉझ-सवेरे,-- इस गतिमय चलन-कलन म, दुख ही दुख भरा हुआ है, ससृति के नियम-वहन मे । ३८५